Poems हिन्दी

 The following poems are from my old diary, a pocket diary, from my high school days. 


(1) 

चलता रहता है, 

ये सिलसिला

अंतहीन 

आकर चले जाना। 


अनजाने से

आते हैं वो, 

जाते हैं वो

पहचाने से। 


क्षण क्षण में

गुजर जाता समय, 

धूल बन जातीं है

जाती यादें। 


और, चलता रहता है

ये सिलसिला

अन्तहीन

जिंदगी का। 

This poem, dedicated to Life, was written when I was in higher secondary school and still learning about life. 

(2) 

मृत्यु लोक को लौटते मस्तिष्क, 

दूर से आती रेलगाड़ी की आवाज़, 

चरमराते खुलते दरवाजे;


आह! नाक को भेदती ओसित

अवनी की सुगंध सौंधी


विदा लेती हुई सुगंध, 

रातरानी की


धूमिल अर्ध-काली छाया से, 

दिखते हुए पेड़


आती ट्रकों की वही, 

जानी-पहचानी आवाज


विजित सा अंधेरा, 

प्रतीक्षा निशांत की। 

 (10-12-1977) 

This poem was composed in class XI. 

I think we all can identify with the sounds, sights and smells described in these lines dedicated to the most wonderful time, dawn. 

My Damoh has changed a lot since then; so has my colony. Now slanting tiled roofs and mud plastered walls are hardly seen. The clanking of door chains and rattling against the wooden doors is no more, instead there is the opening and closing of iron gates. 

(3) 

                      गीत जीवन का 

जीवन संगीत सुनाता हूँ, 

तुम को ऐ राही

                     रुक जाओ, रुक जाओ, 

                     सुन जाओ, रुक जाओ। 

१. कर दिया खुद को बलिदान प्रभु ने, 

    दिया नवजीवन दान हमे। 

    लेकर खुद ने पाप हमारे, 

    दिया जीवन महान हमें। 

२. है ना कितना महान प्रभु वो, 

    किया कितना उसने प्यार हमें। 

    प्यार किया दुख झेल उसने

    है वो कितना महान। 

This song was written during 1977, when I was in class 11.

(4) 

आकर्षित करता है मुझे, 

ऊगता डूबता ये सूरज

लगता है

जैसे यही है ; फासला

जो तय करना है

हाँ यही सूक्ष्म फासला, 

लगता है

क्षणिक यथार्थ सा। 

(1977) 

I remember dwelling upon the fact that life is real yet very short with  Rajesh Sing , a dear friend of school days who is no more. 

(5) 

यथार्थ जीवन जी नहीं पाते, 

बीतता समय देख नंही पाते। 


पता नहीं कब ऊगता है सूरज, 

जाग नहीं पाते। 


अस्तव्यस्त ज़िन्दगी है, 

समेट नंही पाते। 

बीतता समय देख नंही पाते। 


कई दिशाएं हैं

देखते सभी है ंं

पर चुन नंही पाते। 



औ' डूब भी जाता है सूरज, 

दिशाहीन से बस, 

भटकते रह जाते हैं


क्योंकि समय रहते

बीतता समय देख नंही पाते। 


Dated 20-12-1978

I was in B. Sc. First Year at Damoh Degree College. 

(6) 

तेज़ भागते वाहन और 

तेज़ तेज़ भागती जिंदगी;

पलक झपकते है ं

आ जाती है मंजिल

इन द्रुत गामीयों की। 


मील के पत्थर; चकित से, 

खड़े रह जाते हैं;

और ये वाहन

ये जिंदगियां

तेज़ और तेज़

दूर और दूर 

होते जा ते है ं। 

26-11-1978

This poem is dedicated to Sagar MP. It preserves my impression of the place. It was written back in 1978. In Damoh autorikshaws had not begun so the pace of life was quite slow. 

(7) 

कल शाम

शाम खड़ी थी

साथ मेरे

नदी किनारे

ऊंचे पेड़ के नीचे;

सैंकड़ों मूक वार्तालाप हुए

उससे निर्जन में। 

फिर 

समेटने लगी वो

गुलाबी लिबास अपने

नीढ़ को उड़ते पंछी की तरह

जाने लगी वो दूर

दूर जाती नावों की तरह

शांत पानी पर, 

धूमिल पड़ती लकीरों की तरह। 


कल, 

शाम फिर आएगी

उस पेड़ के नीचे

न पाकर मुझे, 

स्तब्ध हो शायद


पर, 

फिर भूल जाएगी शाम

फिर जाएगी, 

फिर आएगी शाम। 

04-10-1980

I was in B. Sc. Final. We were on a family picnic at Nohta village behind the guest house. 

The picnic had come to end. I was standing below a gigantic tree. The tree had witnessed so many picnics.( The tree is no more as it was at the edge of the turning of the river. ) 

The beautiful golden sun was setting right in the middle of the river. The river had a calm smooth golden surface. Two boats were moving towards the setting sun leaving a furrow that was vanishing fast. 

(8) 

धूप शरमा रही है

शाम की

वो छुप रही है

ओट में

लाली छा रही है 

उस पर

जो छिप नहीं रही है

बादलों से भी

वो सिमटे जा रही है

अपने मे

लाल हो रही है

और भी

वो शरमा के

शाम को लिए जा रही है, 

हां, धूप शरमा रही है

शाम की। 

04-10-1980


(9) 

कल रात

एक अजीब वारदात हुई

वो बंदूक लेकर

मज़ारों को आए

जहाँ ज़िन्दा लाशें  रहतीं है ं

शान्ति करने

किसी की

मिला उन्हें वह

शायद वही था

हाँ वही था

क्योंकि

उसके सख्त दिल पर

एक दरार थी

और जवान शरीर पर

न जाने, अनगिनत

जख्म थे या झुर्रियाँ


हाँ, कल रात की

ये एक

अजीब वारदात थी

जो

एक और कब्र

आबाद हुई 

एक और पवित्र स्थल

बढा़

टूटे हुए लोगों का। 

Written probably in 1981.

I had read a similar news about honor killing. It quite moved me. 

(10) 

चल रे मन, 

यादों के गाँव 

सपनों की नाव में। 


चल रे मन, 

बीत चुकी 

पेड़ों की छाव में। 


चल रे मन, 

गीली माटी सने

नन्हें नन्हे पाँव में। 


चल रे मन, 

जी भर दौडे़ंगे

उस हरे भरे गाँव में। 


चल रे मन, 

लड़ेंगे फिर करेंगे सुलह

प्यारी मुस्कान में। 


चल रे मन, 

चल यादों की नाव में

सपनों के गाँव में।। 

(1981) 

(11) 

कुछ और आयतन

कुछ और घनत्व

जोड़ा मैंने;

ईंट और सीमेंट की

ये दीवारें;

कि

समाप्त हो

घुटन ये, 

या कम हो जाए;

शायद

पैमाना गलत था

या

युग के नए आयाम है;

क्योंकि

बासी हवा

अब भी

सांस ले रही है

कमरे में। 

(1981) 

Gradual realization that real happiness comes from within. Materialistic things or achievements do not give real happiness. 

(12) 

मेंरी खामोशी में, शोर का जहर

घुल रहा है

गुम हो रही है, पहचान मेरी

इस शोर में। 


मैंने तो दरख्तों के पार्श्व में, 

गीत बदलते मौसम का 

सुना है। 


दुपहरी की गर्म हवा में, 

कांटों का, तृणों का स्पंदन

देखा है । 


सूखे पत्तों के पीछे भागती, 

पागल सी बाला 

हवा का खेल देखा है। 


मेंरी खामोशी में, शोर का जहर 

घुल रहाहै। 

1981

This poem was written at Delhi where I stayed for two years helping out my maternal family. 

(13) 


बरसो रे मेघा

जीवन हो तुम, बरसो

भर दो पानी

इन रीते कोटरों में

बरसो रे मेघा बरसो। 


के जाने के बाद तुम्हारे

रहती है यही इक आस

खुशी के मिलते हैं आंसू

बुझती है ओठों की प्यास। 


बरसो रे मेघा बरसो

मुस्कान हो तुम

आंसू हो तुम

जीवन हो तुम, बरसो। 

(1984-85) Indore

(14) 

मैं कभी तस्वीर नहीं बन पाऊंगा

क्योंकि, 

किसे याद करोगे तुम? 

मेंरी भौगोलिकता को? 

या मेंरी बातों को शायद


मुझे खुद अहसास होता है

मैं कोई और बन जाता हूँ

जब मिलते हो तुम


मैं कभी तस्वीर नहीं बन पाऊंगा

क्योंकि बनाई तो मैंने है

अपनी तस्वीर तुम्हारे भीतर

और जानता हूँ मैं

वो मेरी नहीं है। 

Indore 1984-85


(15) 

मेरे दर्पण में, 

समय के

अक्स

बहुतेरे है ं। 


प्रतिबिम्ब बादलों के

शांत पानी को

घेरे है ं। 


सूखे पत्तों की दौड़, 

हवा के 

फेरे है ं। 


बदलते रंग

मौसम के, 

सपने बनते

मेरे हैं। 

Indore 


(16) 

मिलन और जुदाई

का अन्तर

बता दो मुझे

इतिहास जमीं का

पढ़ा दो मुझे। 


वो हवाएं आती हैं

कहाँ से

जो बहला देतीं हैं

उन्हें

पता बता दो मुझे। 


ये शोर जीवन का

उभरता है यूँ

के भूल जाते हैं

इस क्षणिक यथार्थ को कैसे

समझा दो मुझे। 

Indore 1985


(17) 

माँ

क्यों तूने सजाए सपने मिथ्या, 

कि प्यार मिलेगा तुझे


माँ

क्यों तूने समझा उन्हें अपना

जब विकसित हुए पर उनके पराए


माँ

क्यों तूने यादों में जोड़े रखे

ये बंधन टूटे हुए


माँ

क्यों तूने सहा ये दर्द एकतरफा

Indore


(18) 

मेरे शहर को बचा लो, 

उसे और चीथड़े पहना दो;

सरहदों पर उसकी, 

कड़ा पहरा लगा दो;

देख न ले कहीं / कभी, 

चीथड़ों के पार तुम्हारी दुनिया;

खून खराबे से तो

तुम भी डरते होगे? 

 Indore 1985

(19)  *मुझसे मेंरी मुलाकात* 

मेरे शहर में, एक आवारा, 

घूम रहा है;

मिलने का मुझसे, 

बहाना ढूंढ रहा है। 


निकलता है कभी बरसात में, 

तो कभी सर्द रात में;

कई साल गुजर गए - - -

वो आवारा, मैं और

आंख-मिचौनी।


ज़र्रा ज़र्रा घूमा है

फिर भी घूमता है

खोजता है मुझे

मेरे शहर में - - -। 

Indore

I was in Indore School of Social Work. I wanted to find my place in the world. I wanted to understand and assess my worth. Yes I wanted to meet the real self hidden and obscure. 

(20) 






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